ajayamitabh7 AJAY AMITABH

लक्ष्मण जी द्वारा राक्षसी सुर्पनखा के नाक और कान काटने की घटना सर्वविदित है। वाल्मिकी रामायण में एक और राक्षसी का वर्णन किया गया है जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने सुर्पनखा की तरह हीं काटे थे। परंतु दोनों घटनाओं में काफी कुछ समानताएं होते हुए भी काफी कुछ असमानताएं भी हैं। लक्ष्मण जी द्वारा सुर्पनखा और इस राक्षसी के नाक और कान काटने का वर्णन वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड में किया गया है। हालांकि सुर्पनखा का जिक्र सीताजी के अपहरण के पहले आता है, जबकि उक्त राक्षसी का वर्णन सीताजी के अपहरण के बाद आता है। आइए देखते हैं, कौन थी वो राक्षसी?


Conto Todo o público.

#mythology
Conto
0
1.1mil VISUALIZAÇÕES
Completa
tempo de leitura
AA Compartilhar

दूसरी सुर्पनखा:राक्षसी अधोमुखी

लक्ष्मण जी द्वारा राक्षसी सुर्पनखा के नाक और कान काटने की घटना सर्वविदित है। सुर्पनखा राक्षसराज लंकाधिपति रावण की बहन थी। जब प्रभु श्रीराम अपनी माता कैकयी की जिद पर अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को गए तब वनवास के दौरान सुर्पनखा श्रीराम जी और लक्ष्मण जी पर कामासक्त हो उनसे प्रणय निवेदन करने लगी।


परंतु श्रीराम जी ने उसका प्रणय निवेदन ये कहकर ठुकरा दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी के साथ रहते है । रामजी ने कहा कि लक्ष्मण जी बिना पत्नी के अकेले हैं इसलिए यदि वो चाहे तो लक्ष्मण जी पास अपना प्रणय निवेदन लेकर जा सकती है।


तत्पश्चात सुर्पनखा लक्ष्मण जी के पास प्रणय निवेदन लेकर जा पहुंची। जब लक्ष्मण जी ने भी उसका प्रणय निवेदन ठुकरा दिया तब क्रुद्ध होकर सुर्पनखा ने सीताजी को मारने का प्रयास किया। सीताजी की जान बचाने के लिए मजबूरन लक्ष्मण जी को सूर्पनखा के नाक काटने पड़े। सुर्पनखा से सम्बन्धित ये थी घटना जिसका वर्णन वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड में किया गया है।


वाल्मिकी रामायण में एक और राक्षसी का वर्णन किया गया है जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने सुर्पनखा की तरह हीं काटे थे। सुर्पनखा और इस राक्षसी के संबंध में बहुत कुछ समानताएं दिखती है। दोनों की दोनों हीं राक्षसियां लक्ष्मण जी पर मोहित होती है और दोनों की दोनों हीं राक्षसियां लक्ष्मण जी से प्रणय निवेदन करती हैं । लक्ष्मण जी न केवल दोनों के प्रणय निवेदन को अस्वीकार करते हैं अपितु उनके नाक और कान भी काटते हैं।


परंतु दोनों घटनाओं में काफी कुछ समानताएं होते हुए भी काफी कुछ असमानताएं भी हैं। लक्ष्मण जी द्वारा सुर्पनखा और इस राक्षसी के नाक और कान काटने का वर्णन वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड में किया गया है। हालांकि सुर्पनखा का जिक्र सीताजी के अपहरण के पहले आता है, जबकि उक्त राक्षसी का वर्णन सीताजी के अपहरण के बाद आता है। आइए देखते हैं, कौन थी वो राक्षसी?


सीताजी को अपहृत कर अपनी राजधानी लंका ले जाते हुए राक्षसराज रावण का सामना पक्षीराज जटायु से होता है। जटायु रावण के हाथो घायल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसका अंतिम जल संस्कार श्रीराम के हाथों द्वारा संपन्न होता है।


पक्षीराज जटायु का अंतिम जल संस्कार संपन्न करने के बाद जब श्रीराम और लक्ष्मण पश्चिम दिशा की तरफ घने जंगलों में आगे को बढ़ते हैं तो उनका सामना मतंग मुनि के आश्रम के आस पास उक्त राक्षसी होता है। इसका घटना का जिक्र वाल्मिकी रामायण के आरण्यक कांड के उनसठवें सर्ग अर्थात 59 वें सर्ग में कुछ इस प्रकार होता है।


[आरण्यकाण्ड:]

[एकोनिसप्ततितम सर्ग:अर्थात उनसठवाँ सर्ग]


श्लोक संख्या 1-2


तस्मै प्रस्थितो रामलक्ष्मणौ ।

अवेक्षन्तौ वने सीतां पश्चिमां जग्मतुर्दिशम् ॥1॥


पक्षिराज [ यहां पक्षीराज का तात्पर्य जटायु से है] की जल क्रियादि पूरी कर, श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण वहाँ से रवाने हो, वन में सीता को ढूंढते हुए पश्चिम दिशा की ओर चले ॥1॥


तौ दिशं दक्षिणां गत्वा शरचापासिधारिणौ ।

अमिता पन्थानं प्रतिजग्मतुः ॥2॥


फिर धनुष वाण खड्ड हाथों में ले दोनों भाई उस मार्ग से जिस पर पहले कोई नहीं चला था, चल कर, पश्चिम दक्षिण के कोण

की ओर चले ॥ 2 ॥


श्लोक संख्या 3-5


अनेक प्रकार के घने झाड़, वृक्षवल्ली, लता आदि होने के कारण वह रास्ता केवल दुर्गम हो नहीं था, बल्कि भयंकर भी था ॥ 3॥


व्यतिक्रम्य तु वेगेन व्यालसिंहनिषेवितम्।

सुभीमं तन्महारण्यं व्यतियातौ महाबलौ ॥ 4॥


इस मार्ग को तय कर, वे अत्यन्त बलवान दोनों राजकुमार, ऐसे स्थान में पहुँचे, जहाँ पर अजगर सर्प और सिंह रहते थे । इस महा भयंकर महारण्य को भी उन दोनों ने पार किया ॥4॥


ततः परं जनस्थानात्रिक्रोशं गम्य राघवौ ।

क्रौञ्चारण्यं विविशतुर्गहनं तो महौजसौ ॥5॥


तदनन्तर चलते चलते वे दोनों बड़े पराक्रमी राजकुमार जन स्थान से तीन कोस दूर, क्रौञ्ज नामक एक जङ्गल में पहुँचे ॥ 5॥


वाल्मिकी रामायण के आरण्यकाण्ड के उनसठवाँ सर्ग के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 5 तक श्रीराम जी द्वारा जटायु के अंतिम संस्कार करने के बाद सीताजी की खोज में पश्चिम दिशा में जाने का वर्णन किया गया है, जहां पर वो दोनों भाई अत्यंत हीं घने जंगल पहुंचे जिसका नाम क्रौञ्ज था।


फिर श्लोक संख्या 6 से श्लोक संख्या 10 तक श्रीराम जी और लक्ष्मण जी द्वारा उस वन को पार करने और मतंग मुनि के आश्रम के समीप जाने का वर्णन किया गया है । वो जंगल बहुत हीं भयानक था तथा अनगिनत जंगली पशुओं और जानवरों से भरा हुआ था।


यहीं पर श्लोक संख्या 11 से श्लोक संख्या 11 से श्लोक संख्या 18 तक इस राक्षसी का वर्णन आता है जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने काट डाले थे। तो इस राक्षसी के वर्णन की शुरुआत कुछ इस प्रकार से होती है।


श्लोक संख्या 10-12.


दोनों दशरथनन्दनों ने वहाँ पर एक पर्वत कन्दरा देखी । वह पाताल की तरह गहरी थी और उसमें सदा अंधकार छाया रहता था ॥10॥


आसाद्य तौ नरव्याघ्रौ दर्यास्तस्या विदूरतः ।

ददृशाते महारूपां राक्षसी विकृताननाम् ॥11॥


उन दोनों पुरुषसिंहों ने, उस गुफा के समीप जा कर एक भयङ्कर रूप वाली विकरालमुखी राक्षसी को देखा ॥12॥


भवदामल्पसत्त्वानां वीभत्सां रौद्रदर्शनाम् ।

लम्बोदरीं तीक्ष्णदंष्ट्रां कलां परुषत्वचम् ॥12॥


वह छोटे जीव जन्तुओं के लिये बड़ी डरावनी थी। उसका रूप बड़ा घिनौना था । वह देखने में बड़ी भयंकर थी, क्योंकि उसकी डाढ़े बड़ी पैनी थीं और पेट बड़ा लंबा था । उसकी खाल बड़ी कड़ी थी ॥12॥


श्लोक संख्या 13-14.


भक्षयन्तीं मृगान्भीमान्त्रिकटां मुक्तमूर्धजाम् ।

प्रेक्षेतां तौ ततस्तत्र भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥13॥


वह बड़े बड़े मृगों को खाया करती थी, वह विकट रूप वाली और सिर के बालों को खोले हुए थी । ऐसी उस राक्षसी को उन दोनों भाइयों ने देखा ॥13॥


सा समासाद्य तौ वीरों व्रजन्तं भ्रातुरग्रतः ।

एहि रंस्यात्युक्त्वा समालम्बत' लक्ष्मणम् ॥14॥


वह राक्षसी इन दोनों भाइयों को देख और आगे चलते हुए लक्ष्मण को देख, बोली- आइए हम दोनों विहार करें, तदनन्तर उसने लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया ॥14।।


श्लोक संख्या 15-16.


उवाच चैनं वचनं सौमित्रिमुपगृह्य सा ।

अहं त्वयोमुखी नाम लाभस्ते त्वमसि प्रियः ॥15॥


वह लक्ष्मण जी को चिपटा कर कहने लगी- मेरा अधोमुखी नाम है , तुम मुझे बड़े प्रिय हो । बड़े भाग्य से तुम मुझे मिले हो ।।15॥


नाथ पर्वतकूटेषु नदीनां पुलिनेषु च ।

आयुःशेषमिमं वीर त्वं मया सह रंस्यसे ।।16॥


हे नाथ ,दुर्गम पर्वतों में और नदियों के तटों पर जीवन के शेष दिनों तक मेरे साथ तुम विहार करना ॥16॥


श्लोक संख्या 17-18.


एवमुक्तस्तु कुपितः खड्गमुद्धृत्य लक्ष्मणः ।

कर्णनासौ स्तनौ चास्या निचकर्तारिसूदनः ॥ 17॥


उसके ऐसे वचन सुन, लक्ष्मण जी ने कुपित हो और म्यान से तलवार निकाल उसके नाक, कान और स्तनों को काट डाला ॥ 17॥


कर्णनासे निकृत्ते तु विश्वरं सा विनद्य च ।

यथागतं प्रदुद्राव राक्षसी भीमदर्शना ।।18।।


जब उसके कान और नाक काट डाले गये, तब वह भयङ्कर राक्षसी भर नाद करती जिधर से आयी थी उधर ही को भाग खड़ी हुई ॥18॥


तो ये दूसरी राक्षसी जिसका नाम अधोमुखी था उसके नाक और कान भी लक्ष्मण जी ने काटे थे। हालांकि इस राक्षसी के नाम के अलावा और कोई जिक्र नहीं आता है वाल्मिकी रामायण में। जिस तरह से सुर्पनखा के खानदान के बारे में जानकारी मिलती है , इस तरह की जानकारी अधोमुखी राक्षसी के बारे में नहीं मिलती। उसके माता पिता कौन थे, उसका खानदान क्या था, उसके भाई बहन कौन थे इत्यादि, इसके बारे में वाल्मिकी रामायण कोई जानकारी नहीं देता है।


हालांकि उसकी शारीरिक रूप रेखा के बारे ये वर्णन किया गया है कि वो अधोमुखी राक्षसी दिखने में बहुत हीं कुरूप थी और पहाड़ के किसी कंदरा में रहती थी। चूंकि वो घने जंगलों में हिंसक पशुओं के बीच रहती थी इसलिए उसके लिए हिंसक होना, मृग आदि का खाना कोई असामान्य बात नहीं थी जिसका वर्णन वाल्मिकी रामायण में किया गया है ।


उसके निवास स्थल के बारे में निश्चित हीं रूप से अंदाजा लगाया जा सकता है । उसका निवास स्थल निश्चित रूप से हीं बालि के साम्राज्य किष्किंधा नगरी के आस पास हीं प्रतीत होती है। ये घटना मतंग मुनि के आश्रम के आस पास हीं हुई होगी। मतंग मुनि सबरी के गुरु थे जिनका उद्धार राम जी ने किया थे । ये मतंग मुनि वो ही थे जिनके श्राप के कारण बालि इस जगह के आस पास भी नहीं फटकता था।


जब बालि ने दुदुंभी नामक राक्षस का वध कर उसके शरीर को मतंग मुनि के आश्रम के पास फेंक दिया था तब क्रुद्ध होकर मतंग मुनि ने बालि को ये श्राप दिया था कि अगर बालि इस आश्रम के आस पास आएगा तो मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इसी कारण बालि वहां नहीं आता था।


यही कारण था कि जब बालि अपने छोटे भाई सुग्रीव से क्रोधित हो गया तब सुग्रीव अपनी जान बचाने के लिए मतंग मुनि के आश्रम के पास हीं रहते थे। जाहिर सी बात है , ये घटना बालि के साम्राज्य किष्किंधा नगरी के आस पास हीं घटित हुई प्रतीत होती है।


इस घटना को ध्यान से देखते हैं तो ज्ञात होता है कि लक्ष्मण जी अपने भाई राम जी से आगे चल रहे हैं। ये एक छोटे भाई का उत्तम चरित्र दिखाता है। जब सीताजी और रामजी साथ थे तो हमेशा उनके पीछे आदर भाव से चलते थे और जब सीताजी के अपहरण के कारण राम जी अति व्यथित हैं तो उनके आगे रहकर ढाल की तरह उनकी रक्षा करते हैं।


कोई यह जरूर कह सकता है कि सुर्पनखा के नाक और कान तब काटे गए थे जब उसने सीताजी को मारने का प्रयास किया परंतु यहां पर तो अधोमुखी ने केवल प्रणय निवेदन किया था। परंतु ध्यान देने वाली बात ये है कि ये घटना सीताजी के अपहरण और जटायु के वध के बाद घटित होती है। जाहिर सी बात है लक्ष्मण जी अति क्षुब्धवस्था में थे।


जब एक व्यक्ति अति क्षुब्धवस्था में हो, जिसकी भाभी का बलात अपहरण कर लिया गया हो, जिसके परम हितैषी जटायु का वध कर दिया गया हो, और जो स्वभाव से हीं अति क्रोधी हो, इन परिस्थितियों में कोई जबरदस्ती प्रणय निवेदन करने लगे तो परिणाम हो भी क्या सकता था? तिस पर प्रभु श्रीराम जी भी लक्ष्मण जी को मना करने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए ये घटना घटित हुई होगी।


यहां पर ये दिखाई पड़ता है कि प्रभु श्रीराम की दिशा निर्देश लक्ष्मण जी को शांत करने के लिए अति आवश्यक थी। चूंकि श्रीराम जी अपनी पत्नी सीताजी के अपहृत हो जाने के कारण अत्यंत दुखी होंगे और लक्ष्मण जी के क्रोध को शांत करने हेतु कोई निर्देश न दे पाए होंगे, यही कारण होगा कि राक्षसी अधोमुखी द्वारा मात्र प्रणय निवेदन करने पर हीं लक्ष्मण जी ने उसके नाक और कान काट डाले। तो ये थी राक्षसी अधोमुखी जिसके नाक और कान लक्ष्मण जी ने राक्षसी सुर्पनखा की तरह हीं काटे थे।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

6 de Novembro de 2022 às 11:22 0 Denunciar Insira Seguir história
0
Fim

Conheça o autor

AJAY AMITABH Advocate, Author and Poet

Comente algo

Publique!
Nenhum comentário ainda. Seja o primeiro a dizer alguma coisa!
~